चराग़ सामने वाले मकान में भी न था
चराग़ बुझते चले जा रहे हैं सिलसिला-वार
चारों जानिब रची हुई है अश्कों की बू-बास
बोझ से झुकने लगी शाख़ तो जा कर हम ने
बिछड़ते वक़्त ढलकता न गर इन आँखों से
ये शहर अपने हरीफ़ों से हारा थोड़ी है ...
वो यूँही नहीं 'इश्क़ की जागीर से निकला ...
वो सुब्ह वस्ल कर के परेशान भी गया ...
वो हाथ और ही था वो पत्थर ही और था ...
उस की मोहब्बतों का तरीक़ा कुछ और है ...
उस की ख़्वाहिश है कि जल्दी भूल जाना चाहिए ...
तू मिरी खोई निशानी के सिवा कुछ भी नहीं ...
तू अपने वस्ल के वा'दे से जब मुकरने लगा ...
सुलूक-ए-नारवा का इस लिए शिकवा नहीं करता ...
सुब्ह आता हूँ यहाँ और शाम हो जाने के बा'द ...
सभी खड़े थे शरीक-ए-ज़माना होते हुए ...
रहना नहीं अगरचे गवारा ज़मीन पर ...
रात आती रहती है दिन निकलता रहता है ...
क़ुर्बतों में कोई राहत न किसी दूरी में ...
पहले-पहल घर से निकले हो ध्यान रहे ...