नक़ाब रुख़ से हटा दूँ अगर इजाज़त हो ...
लगा दी आग किसी ने दिल-ओ-जिगर में मिरे ...
चाँद देखा कि बस वो याद आए ...
बाज़ आ बाद-ए-बहाराँ ये शरारत क्या है ...
अश्क आँखों में क्यों बे-कराँ आ गए ...
अगर यूँ आईना देखा न जाए ...
मैं छाओं में जिन की
रात के ये मुहीब सन्नाटे
मैं इन परिंदों को जानता हूँ ...
विग़ा में कोई भी ऐसा 'अदू नहीं आया ...
मेरी आमद पे सजाते थे जो रस्ता मेरा ...
लो डूब गया फ़र्श-ए-‘अज़ा दीदा-ए-नम से ...
जुनूँ के हाथ से ख़्वार-ओ-ख़जिल नहीं होता ...
इतना न कर किसी को शनासा उखेड़ से ...
हिज्र उस का मिरे आ'साब पे यूँ तारी था ...
गो अब मिरे वुजूद पे सर है न दोश है ...
फ़ौरन सिपाह-ए-शूम की ललकार बंद हो ...
दुख तो ये है ज़िंदगी का ख़्वाब पूरा रह गया ...
अश्क टपका न मिरी आँख में ख़ूँ आया है ...
उस मुसाफ़िर के हरे लफ़्ज़ असर-दार हुए ...