उस मुसाफ़िर के हरे लफ़्ज़ असर-दार हुए

By asim-qamarFebruary 25, 2024
उस मुसाफ़िर के हरे लफ़्ज़ असर-दार हुए
मेरे मुरझाए हुए पेड़ समर-बार हुए
मैं समझता था बिछड़ जाना हद-ए-आखिर है
फिर तिरी याद के आसेब नुमूदार हुए


दोस्त दस्तक तो किवाड़ों पे सुनी जाती हैं
और हमें एक सदी हो गई दीवार हुए
वर्ना हम में भी ख़राबी की कोई बात न थी
इक मगर तेरी तमन्ना के गुनहगार हुए


मौसम-ए-'इश्क़ भी आया था ज़मीन-ए-दिल पर
पर वही बात के बदलाओ लगातार हुए
हम ने फ़िर्क़ों की सलीबों पे चढ़ाए क़ुरआन
और ख़ुदा छोड़ के बंदों के तरफ़-दार हुए


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