ज़िंदा लोगों को निवालों सा चबाने वाले
ज़ात की नरमी ज़ेहनी ठंडक शफ़क़त सारी दुनिया की
ज़रबें दे कर पलट के देखा तो
ये उस का खेल है जिस खेल में हर बार वो यारो
वक़्त की कोख में सुलगता सा
शायद वो जा चुका है मगर देख लो कहीं
सच का निखरा लिबास पहने हुए
निकल गया जो कहानी से मैं तुम्हारी कहीं
माँग लेते हैं भरोसे पे कि वो दे देगा
लिखवा दिए हैं रब को सभी ज़ालिमों के नाम
हम तो इक तिल पे ही बस ख़ुद को फ़ना कर बैठे
हाथ चेहरे पे लगाते ही वो घबरा सी गईं
हार को जीत के पहलू में बिठा देते हैं
दर-ब-दर मैं ही नहीं वक़्त भी इन राहों पर
डर तो नहीं मगर कहीं पत्तों के शोर से
आप वाक़िफ़ हैं मिरे दोस्त हसीं लफ़्ज़ों से
तू ने नज़रों से कई लोग गिराए होंगे ...
ओढ़ कर शाल तिरी यादों की घर जाता हूँ ...
नज़रों से गिर गया तो उठाया नहीं गया ...
नगीन लगता हूँ मैं दिल-नशीन लगता हूँ ...