ये ग़ाज़ी ये तेरे पुर-अस्रार बन्दे

Shayari By

ट्रेन मग़रिबी जर्मनी की सरहद में दाख़िल हो चुकी थी। हद-ए-नज़र तक लाला के तख़्ते लहलहा रहे थे। देहात की शफ़्फ़ाफ़ सड़कों पर से कारें ज़न्नाटे से गुज़रती जाती थीं। नदियों में बतखें तैर रही थीं। ट्रेन के एक डिब्बे में पाँच मुसाफ़िर चुप-चाप बैठे थे।
एक बूढ़ा जो खिड़की से सर टिकाए बाहर देख रहा था। एक फ़र्बा औ’रत जो शायद उसकी बेटी थी और उसकी तरफ़ से बहुत फ़िक्रमंद नज़र आती थी। ग़ालिबन वो बीमार था। सीट के दूसरे सिरे पर एक ख़ुश शक्ल तवील-उल-क़ामत शख़्स, चालीस साल के लगभग उ’म्र, मुतबस्सिम पुर-सुकून चेहरा एक फ़्रैंच किताब के मुताले’ में मुनहमिक था। मुक़ाबिल की कुर्सी पर एक नौजवान लड़की जो वज़्अ’ क़त्अ’ से अमरीकन मा’लूम होती थी, एक बा-तस्वीर रिसाले की वरक़-गर्दानी कर रही थी और कभी-कभी नज़रें उठा कर सामने वाले पुर-कशिश शख़्स को देख लेती थी। पाँचवें मुसाफ़िर का चेहरा अख़बार से छिपा था। अख़बार किसी अदक़ अजनबी ज़बान में था। शायद नार्देजियन या हंगेरियन, या हो सकता है आईसलैंडिक। इस दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो आईसलैंडिक में बातें करते हैं। पढ़ते लिखते और शे’र कहते हैं। दुनिया अ’जाइब से ख़ाली नहीं।

अमरीकन-नुमा लड़की ने जो ख़ालिस अमरीकन तजस्सुस से ये जानना चाहती थी कि ये कौन सी ज़बान है, उस ख़ूबसूरत आदमी को अख़बार पढ़ने वाले नौजवान से बातें करते सुना। वो भी किसी अजनबी ज़बान में बोल रहा था। लेकिन वो ज़बान ज़रा मानूस सी मा’लूम हुई। लड़की ने क़यास किया कि ये शख़्स ईरानी या तुर्क है। वो अपने शहर टोरांटो में चंद ईरानी तलबा’ से मिल चुकी थी। चलो ये तो पता चल गया कि ये फ़ैबूलस गाय (fabulous guy) पर्शियन है। (उसने अंग्रेज़ी में सोचा। मैं आपको उर्दू में बता रही हूँ क्योंकि अफ़साना ब-ज़बान-ए-उर्दू है।)
अचानक बूढ़े ने जो अंग्रेज़ था, आहिस्ता से कहा, “दुनिया वाक़ई’ ख़ासी ख़ूबसूरत है।” [...]

ये ग़ाज़ी ये तेरे पुर-अस्रार बन्दे

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ट्रेन मग़रिबी जर्मनी की सरहद में दाख़िल हो चुकी थी। हद-ए-नज़र तक लाला के तख़्ते लहलहा रहे थे। देहात की शफ़्फ़ाफ़ सड़कों पर से कारें ज़न्नाटे से गुज़रती जाती थीं। नदियों में बतखें तैर रही थीं। ट्रेन के एक डिब्बे में पाँच मुसाफ़िर चुप-चाप बैठे थे।
एक बूढ़ा जो खिड़की से सर टिकाए बाहर देख रहा था। एक फ़र्बा औ’रत जो शायद उसकी बेटी थी और उसकी तरफ़ से बहुत फ़िक्रमंद नज़र आती थी। ग़ालिबन वो बीमार था। सीट के दूसरे सिरे पर एक ख़ुश शक्ल तवील-उल-क़ामत शख़्स, चालीस साल के लगभग उ’म्र, मुतबस्सिम पुर-सुकून चेहरा एक फ़्रैंच किताब के मुताले’ में मुनहमिक था। मुक़ाबिल की कुर्सी पर एक नौजवान लड़की जो वज़्अ’ क़त्अ’ से अमरीकन मा’लूम होती थी, एक बा-तस्वीर रिसाले की वरक़-गर्दानी कर रही थी और कभी-कभी नज़रें उठा कर सामने वाले पुर-कशिश शख़्स को देख लेती थी। पाँचवें मुसाफ़िर का चेहरा अख़बार से छिपा था। अख़बार किसी अदक़ अजनबी ज़बान में था। शायद नार्देजियन या हंगेरियन, या हो सकता है आईसलैंडिक। इस दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो आईसलैंडिक में बातें करते हैं। पढ़ते लिखते और शे’र कहते हैं। दुनिया अ’जाइब से ख़ाली नहीं।

अमरीकन-नुमा लड़की ने जो ख़ालिस अमरीकन तजस्सुस से ये जानना चाहती थी कि ये कौन सी ज़बान है, उस ख़ूबसूरत आदमी को अख़बार पढ़ने वाले नौजवान से बातें करते सुना। वो भी किसी अजनबी ज़बान में बोल रहा था। लेकिन वो ज़बान ज़रा मानूस सी मा’लूम हुई। लड़की ने क़यास किया कि ये शख़्स ईरानी या तुर्क है। वो अपने शहर टोरांटो में चंद ईरानी तलबा’ से मिल चुकी थी। चलो ये तो पता चल गया कि ये फ़ैबूलस गाय (fabulous guy) पर्शियन है। (उसने अंग्रेज़ी में सोचा। मैं आपको उर्दू में बता रही हूँ क्योंकि अफ़साना ब-ज़बान-ए-उर्दू है।)
अचानक बूढ़े ने जो अंग्रेज़ था, आहिस्ता से कहा, “दुनिया वाक़ई’ ख़ासी ख़ूबसूरत है।” [...]

ये ग़ाज़ी ये तेरे पुर-अस्रार बन्दे

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ट्रेन मग़रिबी जर्मनी की सरहद में दाख़िल हो चुकी थी। हद-ए-नज़र तक लाला के तख़्ते लहलहा रहे थे। देहात की शफ़्फ़ाफ़ सड़कों पर से कारें ज़न्नाटे से गुज़रती जाती थीं। नदियों में बतखें तैर रही थीं। ट्रेन के एक डिब्बे में पाँच मुसाफ़िर चुप-चाप बैठे थे।
एक बूढ़ा जो खिड़की से सर टिकाए बाहर देख रहा था। एक फ़र्बा औ’रत जो शायद उसकी बेटी थी और उसकी तरफ़ से बहुत फ़िक्रमंद नज़र आती थी। ग़ालिबन वो बीमार था। सीट के दूसरे सिरे पर एक ख़ुश शक्ल तवील-उल-क़ामत शख़्स, चालीस साल के लगभग उ’म्र, मुतबस्सिम पुर-सुकून चेहरा एक फ़्रैंच किताब के मुताले’ में मुनहमिक था। मुक़ाबिल की कुर्सी पर एक नौजवान लड़की जो वज़्अ’ क़त्अ’ से अमरीकन मा’लूम होती थी, एक बा-तस्वीर रिसाले की वरक़-गर्दानी कर रही थी और कभी-कभी नज़रें उठा कर सामने वाले पुर-कशिश शख़्स को देख लेती थी। पाँचवें मुसाफ़िर का चेहरा अख़बार से छिपा था। अख़बार किसी अदक़ अजनबी ज़बान में था। शायद नार्देजियन या हंगेरियन, या हो सकता है आईसलैंडिक। इस दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो आईसलैंडिक में बातें करते हैं। पढ़ते लिखते और शे’र कहते हैं। दुनिया अ’जाइब से ख़ाली नहीं।

अमरीकन-नुमा लड़की ने जो ख़ालिस अमरीकन तजस्सुस से ये जानना चाहती थी कि ये कौन सी ज़बान है, उस ख़ूबसूरत आदमी को अख़बार पढ़ने वाले नौजवान से बातें करते सुना। वो भी किसी अजनबी ज़बान में बोल रहा था। लेकिन वो ज़बान ज़रा मानूस सी मा’लूम हुई। लड़की ने क़यास किया कि ये शख़्स ईरानी या तुर्क है। वो अपने शहर टोरांटो में चंद ईरानी तलबा’ से मिल चुकी थी। चलो ये तो पता चल गया कि ये फ़ैबूलस गाय (fabulous guy) पर्शियन है। (उसने अंग्रेज़ी में सोचा। मैं आपको उर्दू में बता रही हूँ क्योंकि अफ़साना ब-ज़बान-ए-उर्दू है।)
अचानक बूढ़े ने जो अंग्रेज़ था, आहिस्ता से कहा, “दुनिया वाक़ई’ ख़ासी ख़ूबसूरत है।” [...]

ये ग़ाज़ी ये तेरे पुर-अस्रार बन्दे

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ट्रेन मग़रिबी जर्मनी की सरहद में दाख़िल हो चुकी थी। हद-ए-नज़र तक लाला के तख़्ते लहलहा रहे थे। देहात की शफ़्फ़ाफ़ सड़कों पर से कारें ज़न्नाटे से गुज़रती जाती थीं। नदियों में बतखें तैर रही थीं। ट्रेन के एक डिब्बे में पाँच मुसाफ़िर चुप-चाप बैठे थे।
एक बूढ़ा जो खिड़की से सर टिकाए बाहर देख रहा था। एक फ़र्बा औ’रत जो शायद उसकी बेटी थी और उसकी तरफ़ से बहुत फ़िक्रमंद नज़र आती थी। ग़ालिबन वो बीमार था। सीट के दूसरे सिरे पर एक ख़ुश शक्ल तवील-उल-क़ामत शख़्स, चालीस साल के लगभग उ’म्र, मुतबस्सिम पुर-सुकून चेहरा एक फ़्रैंच किताब के मुताले’ में मुनहमिक था। मुक़ाबिल की कुर्सी पर एक नौजवान लड़की जो वज़्अ’ क़त्अ’ से अमरीकन मा’लूम होती थी, एक बा-तस्वीर रिसाले की वरक़-गर्दानी कर रही थी और कभी-कभी नज़रें उठा कर सामने वाले पुर-कशिश शख़्स को देख लेती थी। पाँचवें मुसाफ़िर का चेहरा अख़बार से छिपा था। अख़बार किसी अदक़ अजनबी ज़बान में था। शायद नार्देजियन या हंगेरियन, या हो सकता है आईसलैंडिक। इस दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो आईसलैंडिक में बातें करते हैं। पढ़ते लिखते और शे’र कहते हैं। दुनिया अ’जाइब से ख़ाली नहीं।

अमरीकन-नुमा लड़की ने जो ख़ालिस अमरीकन तजस्सुस से ये जानना चाहती थी कि ये कौन सी ज़बान है, उस ख़ूबसूरत आदमी को अख़बार पढ़ने वाले नौजवान से बातें करते सुना। वो भी किसी अजनबी ज़बान में बोल रहा था। लेकिन वो ज़बान ज़रा मानूस सी मा’लूम हुई। लड़की ने क़यास किया कि ये शख़्स ईरानी या तुर्क है। वो अपने शहर टोरांटो में चंद ईरानी तलबा’ से मिल चुकी थी। चलो ये तो पता चल गया कि ये फ़ैबूलस गाय (fabulous guy) पर्शियन है। (उसने अंग्रेज़ी में सोचा। मैं आपको उर्दू में बता रही हूँ क्योंकि अफ़साना ब-ज़बान-ए-उर्दू है।)
अचानक बूढ़े ने जो अंग्रेज़ था, आहिस्ता से कहा, “दुनिया वाक़ई’ ख़ासी ख़ूबसूरत है।” [...]

घाटे का सौदा

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दो दोस्तों ने मिल कर दस-बीस लड़कियों में से एक लड़की चुनी और बयालिस रुपये दे कर उसे ख़रीद लिया।
रात गुज़ार कर एक दोस्त ने उस लड़की से पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”

लड़की ने अपना नाम बताया तो वो भिन्ना गया। “हम से तो कहा गया था कि तुम दूसरे मज़हब की हो।”
लड़की ने जवाब दिया, उस ने झूट बोला था।” [...]

गूँगी मुहब्बत

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वो दोनों जवान थीं और ज़ाहिर है कि जवानी की बहार-आफ़रीनी हर निस्वानी पैकर के ख़द्द-ओ-ख़ाल में एक ख़ास शगुफ़्तगी और एक ख़ास दिल-आवेज़ी पैदा कर देती है... चुनाँचे वो दोनों हसीन भी थीं। दोनों के क़द भी क़रीबन-क़रीबन यकसाँ थे। दोनों की उ'म्रों में भी कोई ख़ास फ़र्क़ न था। एक की उ'म्र सोलह साल के क़रीब होगी और दूसरी की सत्रह या अठारह के लगभग।
मगर इन चीज़ों के बा-वजूद दोनों में बहुत बड़ा फ़र्क़ था। एक को फ़ितरतन हक़ हासिल था कि वो ख़ूब हँसे और हर वक़्त हँसती रहे और दूसरी दुनिया में सिर्फ़ इस ग़रज़ से पैदा हुई थी कि वो ख़्वाह हँसे या रोए लेकिन दूसरों को ज़रूर हँसाए। एक इशारों में अहकाम सादर करती थी और दूसरी उन अहकाम की बे-चून-ओ-चरा ता'मील कर देती थी और सबसे बढ़कर ये एक की ज़बान उसके मुँह में थी और दूसरी की ज़बान उसके हाथों के इशारों में।

एक का नाम था इंदिरा... काग़ज़ की एक मशहूर फ़र्म के वाहिद मालिक सेठ बद्रीप्रशाद की इकलौती बेटी... दूसरी का नाम था ज्योती... लेकिन ये नाम एक शख़्स भी न जानता था। आख़िर एक गूँगी लड़की का नाम मा'लूम करने की ज़रूरत भी क्या है? जिस तरह हर शख़्स गूँगी के नाम से वाक़िफ़ था। उसी तरह वो ये भी नहीं जानता था कि वो किस ख़ानदान से तअ'ल्लुक़ रखती है और उसके वालिदैन कौन थे। इंदिरा ने दो एक-बार उसके ख़ानदानी हालात मा'लूम करने की मा'मूली कोशिश की। मगर जब देखा कि इस सिलसिले में हर कोशिश फ़ुज़ूल है। तो उसने जाँच पड़ताल करने का इरादा ही दिल से निकाल दिया।
कोई औ'रत भी ख़ास तौर पर अपनी ख़ादिमा के ख़ानदानी हालात मा'लूम करने के लिए ज़ियादा तग-ओ-दव नहीं करती। फिर इंदिरा को क्या पड़ी थी कि वो अपनी गूँगी ख़ादिमा के हालात दरियाफ़्त करती? उसके लिए यही काफ़ी था कि उसके घर में एक गूँगी लड़की ज़िंदगी के दिन गुज़ार रही है जो उसकी ख़ादिमा भी है और ज़रीआ-ए-तफ़रीह भी। [...]

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