बर्फ़बारी से पहले

Shayari By

“आज रात तो यक़ीनन बर्फ़ पड़ेगी”, साहिब-ए-ख़ाना ने कहा। सब आतिश-दान के और क़रीब हो के बैठ गए। आतिश-दान पर रखी हुई घड़ी अपनी मुतवाज़िन यकसानियत के साथ टक-टक करती रही। बिल्लियाँ कुशनों में मुँह दिए ऊँघ रही थीं, और कभी-कभी किसी आवाज़ पर कान खड़े कर के खाने के कमरे के दरवाज़े की तरफ़ एक आँख थोड़ी सी खोल कर देख लेती थीं। साहिब-ए-ख़ाना की दोनों लड़कियाँ निटिंग में मशग़ूल थीं। घर के सारे बच्चे कमरे के एक कोने में पुराने अख़बारों और रिसालों के ढेर पर चढ़े कैरम में मसरूफ़ थे।
बौबी मुमताज़ खिड़की के क़रीब ख़ामोश बैठा इन सबको देखता रहा।

“हाँ आज रात तो क़तई’ बर्फ़ पड़ेगी”, साहिब-ए-ख़ाना के बड़े बेटे ने कहा।
“बड़ा मज़ा आएगा। सुब्ह को हम स्नोमैन बनाएँगे”, एक बच्चा चिल्लाया। [...]

स्वराज के लिए

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मुझे सन् याद नहीं रहा लेकिन वही दिन थे। जब अमृतसर में हर तरफ़ “इन्क़लाब ज़िंदाबाद” के नारे गूंजते थे। उन नारों में, मुझे अच्छी तरह याद है, एक अ’जीब क़िस्म का जोश था... एक जवानी... एक अ’जीब क़िस्म की जवानी। बिल्कुल अमृतसर की गुजरियों की सी जो सर पर ऊपलों के टोकरे उठाए बाज़ारों को जैसे काटती हुई चलती हैं... ख़ूब दिन थे। फ़िज़ा में जो जलियांवाला बाग़ के ख़ूनीं हादिसे का उदास ख़ौफ़ समोया रहता था। उस वक़्त बिल्कुल मफ़क़ूद था। अब उसकी जगह एक बेख़ौफ तड़प ने ले ली थी। एक अंधाधुंद जस्त ने जो अपनी मंज़िल से नावाक़िफ़ थी।
लोग नारे लगाते थे, जलूस निकालते थे और सैंकड़ों की ता’दाद में धड़ाधड़ क़ैद हो रहे थे। गिरफ़्तार होना एक दिलचस्प शग़ल बिन गया था। सुबह क़ैद हुए, शाम छोड़ दिए गए। मुक़द्दमा चला, चंद महीनों की क़ैद हुई, वापस आए, एक नारा लगाया, फिर क़ैद हो गए।

ज़िंदगी से भरपूर दिन थे। एक नन्हा सा बुलबुला फटने पर भी एक बहुत बड़ा भंवर बन जाता था। किसी ने चौक में खड़े हो कर तक़रीर की और कहा, हड़ताल होनी चाहिए, चलिए जी हड़ताल हो गई... एक लहर उठी कि हर शख़्स को खादी पहननी चाहिए ताकि लंका शाइर के सारे कारख़ाने बंद हो जाएं... बिदेशी कपड़ों का बायकॉट शुरू हो गया और हर चौक में अलाव जलने लगे। लोग जोश में आकर खड़े खड़े वहीं कपड़े उतारते और अलाव में फेंकते जाते, कोई औरत अपने मकान के शहनशीन से अपनी नापसंदीदा साड़ी उछालती तो हुजूम तालियां पीट पीट कर अपने हाथ लाल कर लेता।
मुझे याद है कोतवाली के सामने टाउन हाल के पास एक अलाव जल रहा था... शेख़ू ने जो मेरा हम-जमाअ’त था, जोश में आकर अपना रेशमी कोट उतारा और बिदेशी कपड़ों की चिता में डाल दिया। तालियों का समुंदर बहने लगा क्योंकि शेख़ू एक बहुत बड़े “टोडी बच्चे” का लड़का था। उस ग़रीब का जोश और भी ज़्यादा बढ़ गया। अपनी बोस्की की क़मीज़ उतार वो भी शो’लों की नज़र करदी, लेकिन बाद में ख़याल आया कि उसके साथ सोने के बटन थे। [...]

ये ग़ाज़ी ये तेरे पुर-अस्रार बन्दे

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ट्रेन मग़रिबी जर्मनी की सरहद में दाख़िल हो चुकी थी। हद-ए-नज़र तक लाला के तख़्ते लहलहा रहे थे। देहात की शफ़्फ़ाफ़ सड़कों पर से कारें ज़न्नाटे से गुज़रती जाती थीं। नदियों में बतखें तैर रही थीं। ट्रेन के एक डिब्बे में पाँच मुसाफ़िर चुप-चाप बैठे थे।
एक बूढ़ा जो खिड़की से सर टिकाए बाहर देख रहा था। एक फ़र्बा औ’रत जो शायद उसकी बेटी थी और उसकी तरफ़ से बहुत फ़िक्रमंद नज़र आती थी। ग़ालिबन वो बीमार था। सीट के दूसरे सिरे पर एक ख़ुश शक्ल तवील-उल-क़ामत शख़्स, चालीस साल के लगभग उ’म्र, मुतबस्सिम पुर-सुकून चेहरा एक फ़्रैंच किताब के मुताले’ में मुनहमिक था। मुक़ाबिल की कुर्सी पर एक नौजवान लड़की जो वज़्अ’ क़त्अ’ से अमरीकन मा’लूम होती थी, एक बा-तस्वीर रिसाले की वरक़-गर्दानी कर रही थी और कभी-कभी नज़रें उठा कर सामने वाले पुर-कशिश शख़्स को देख लेती थी। पाँचवें मुसाफ़िर का चेहरा अख़बार से छिपा था। अख़बार किसी अदक़ अजनबी ज़बान में था। शायद नार्देजियन या हंगेरियन, या हो सकता है आईसलैंडिक। इस दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो आईसलैंडिक में बातें करते हैं। पढ़ते लिखते और शे’र कहते हैं। दुनिया अ’जाइब से ख़ाली नहीं।

अमरीकन-नुमा लड़की ने जो ख़ालिस अमरीकन तजस्सुस से ये जानना चाहती थी कि ये कौन सी ज़बान है, उस ख़ूबसूरत आदमी को अख़बार पढ़ने वाले नौजवान से बातें करते सुना। वो भी किसी अजनबी ज़बान में बोल रहा था। लेकिन वो ज़बान ज़रा मानूस सी मा’लूम हुई। लड़की ने क़यास किया कि ये शख़्स ईरानी या तुर्क है। वो अपने शहर टोरांटो में चंद ईरानी तलबा’ से मिल चुकी थी। चलो ये तो पता चल गया कि ये फ़ैबूलस गाय (fabulous guy) पर्शियन है। (उसने अंग्रेज़ी में सोचा। मैं आपको उर्दू में बता रही हूँ क्योंकि अफ़साना ब-ज़बान-ए-उर्दू है।)
अचानक बूढ़े ने जो अंग्रेज़ था, आहिस्ता से कहा, “दुनिया वाक़ई’ ख़ासी ख़ूबसूरत है।” [...]

सुना है आलम-ए-बाला में कोई कीमिया-गर था

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फिर शाम का अंधेरा छा गया। किसी दूर दराज़ की सरज़मीन से, न जाने कहाँ से मेरे कानों में एक दबी हुई सी, छुपी हुई आवाज़ आहिस्ता-आहिस्ता गा रही थी,
चमक तारे से मांगी चांद से दाग़-ए-जिगर मांगा

उड़ाई तीरगी थोड़ी सी शब की ज़ुल्फ़-ए-बर्हम से
तड़प बिजली से पाई, हूर से पाकीज़गी पाई [...]

बाँझ

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मेरी और उसकी मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलोबंदर पर हुई। शाम का वक़्त था, सूरज की आख़िरी किरनें समुंदर की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी जो साहिल के बेंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की तहें मालूम होती थीं। मैं गेट आफ़ इंडिया के उस तरफ़ पहला बेंच छोड़ कर जिस पर एक आदमी चम्पी वाले से अपने सर की मालिश करा रहा था, दूसरे बेंच पर बैठा था और हद्द-ए-नज़र तक फैले हुए समुंदर को देख रहा था।
दूर बहुत दूर जहां समुंदर और आसमान घुल मिल रहे थे। बड़ी बड़ी लहरें आहिस्ता आहिस्ता उठ रही थीं और ऐसा मालूम होता था कि बहुत बड़ा गदले रंग का क़ालीन है जिसे इधर से उधर समेटा जा रहा है।

साहिल के सब क़ुमक़ुमे रोशन थे जिनका अक्स किनारे के लर्ज़ां पानी पर कपकपाती हुई मोटी लकीरों की सूरत में जगह जगह रेंग रहा था। मेरे पास पथरीली दीवार के नीचे कई कश्तियों के लिपटे हुए बादबान और बांस हौले-हौले हरकत कर रहे थे। समुंदर की लहरें और तमाशाइयों की आवाज़ एक गुनगुनाहट बन कर फ़िज़ा में घुली हुई थी। कभी कभी किसी आने या जाने वाली मोटर के हॉर्न की आवाज़ बुलंद होती और यूं मालूम होता कि बड़ी दिलचस्प कहानी सुनने के दौरान में किसी ने ज़ोर से “हूँ” की है।
ऐसे माहौल में सिगरेट पीने का बहुत मज़ा आता है। मैंने जेब में हाथ डाल कर सिगरेट की डिबिया निकाली, मगर माचिस न मिली। जाने कहाँ भूल आया था। सिगरेट की डिबिया वापस जेब में रखने ही वाला था कि पास से किसी ने कहा, “माचिस लीजिएगा।” [...]

ये ग़ाज़ी ये तेरे पुर-अस्रार बन्दे

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ट्रेन मग़रिबी जर्मनी की सरहद में दाख़िल हो चुकी थी। हद-ए-नज़र तक लाला के तख़्ते लहलहा रहे थे। देहात की शफ़्फ़ाफ़ सड़कों पर से कारें ज़न्नाटे से गुज़रती जाती थीं। नदियों में बतखें तैर रही थीं। ट्रेन के एक डिब्बे में पाँच मुसाफ़िर चुप-चाप बैठे थे।
एक बूढ़ा जो खिड़की से सर टिकाए बाहर देख रहा था। एक फ़र्बा औ’रत जो शायद उसकी बेटी थी और उसकी तरफ़ से बहुत फ़िक्रमंद नज़र आती थी। ग़ालिबन वो बीमार था। सीट के दूसरे सिरे पर एक ख़ुश शक्ल तवील-उल-क़ामत शख़्स, चालीस साल के लगभग उ’म्र, मुतबस्सिम पुर-सुकून चेहरा एक फ़्रैंच किताब के मुताले’ में मुनहमिक था। मुक़ाबिल की कुर्सी पर एक नौजवान लड़की जो वज़्अ’ क़त्अ’ से अमरीकन मा’लूम होती थी, एक बा-तस्वीर रिसाले की वरक़-गर्दानी कर रही थी और कभी-कभी नज़रें उठा कर सामने वाले पुर-कशिश शख़्स को देख लेती थी। पाँचवें मुसाफ़िर का चेहरा अख़बार से छिपा था। अख़बार किसी अदक़ अजनबी ज़बान में था। शायद नार्देजियन या हंगेरियन, या हो सकता है आईसलैंडिक। इस दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो आईसलैंडिक में बातें करते हैं। पढ़ते लिखते और शे’र कहते हैं। दुनिया अ’जाइब से ख़ाली नहीं।

अमरीकन-नुमा लड़की ने जो ख़ालिस अमरीकन तजस्सुस से ये जानना चाहती थी कि ये कौन सी ज़बान है, उस ख़ूबसूरत आदमी को अख़बार पढ़ने वाले नौजवान से बातें करते सुना। वो भी किसी अजनबी ज़बान में बोल रहा था। लेकिन वो ज़बान ज़रा मानूस सी मा’लूम हुई। लड़की ने क़यास किया कि ये शख़्स ईरानी या तुर्क है। वो अपने शहर टोरांटो में चंद ईरानी तलबा’ से मिल चुकी थी। चलो ये तो पता चल गया कि ये फ़ैबूलस गाय (fabulous guy) पर्शियन है। (उसने अंग्रेज़ी में सोचा। मैं आपको उर्दू में बता रही हूँ क्योंकि अफ़साना ब-ज़बान-ए-उर्दू है।)
अचानक बूढ़े ने जो अंग्रेज़ था, आहिस्ता से कहा, “दुनिया वाक़ई’ ख़ासी ख़ूबसूरत है।” [...]

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