उसे ख़याल में बाँधूँ कि ख़्वाब में देखूँ
By kanwal-pradeep-mahajanFebruary 27, 2024
उसे ख़याल में बाँधूँ कि ख़्वाब में देखूँ
कोई वो बुत है उसे क्यों हिजाब में देखूँ
ये वस्फ़ भी दिल-ए-ख़ाना-ख़राब में देखूँ
सरापा मैं उसे सौ सौ हिजाब में देखूँ
उसी का नक़्श मैं हर इंतिख़ाब में देखूँ
उसी का ज़िक्र है जिस भी किताब में देखूँ
उसी का 'अक्स उभर आए सफ़्हे सफ़्हे पर
उसी का नाम मैं हर एक बाब में देखूँ
उसी के रुख़ के ख़द-ओ-ख़ाल पढ़ता रहता हूँ
वो ही न हो कहीं शामिल निसाब में देखूँ
सवाल कर तो दिया उस से बे-ख़ुदी में 'कँवल'
मिरे नसीब में क्या है जवाब में देखूँ
कोई वो बुत है उसे क्यों हिजाब में देखूँ
ये वस्फ़ भी दिल-ए-ख़ाना-ख़राब में देखूँ
सरापा मैं उसे सौ सौ हिजाब में देखूँ
उसी का नक़्श मैं हर इंतिख़ाब में देखूँ
उसी का ज़िक्र है जिस भी किताब में देखूँ
उसी का 'अक्स उभर आए सफ़्हे सफ़्हे पर
उसी का नाम मैं हर एक बाब में देखूँ
उसी के रुख़ के ख़द-ओ-ख़ाल पढ़ता रहता हूँ
वो ही न हो कहीं शामिल निसाब में देखूँ
सवाल कर तो दिया उस से बे-ख़ुदी में 'कँवल'
मिरे नसीब में क्या है जवाब में देखूँ
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