क़रीब आ कि इरादे लहू के देखते हैं
By nomaan-shauqueFebruary 28, 2024
क़रीब आ कि इरादे लहू के देखते हैं
दहकती आग को होंठों से छू के देखते हैं
उधर उगाती है फ़स्लें इधर डुबोती है
करिश्मे हम भी तिरी आबजू के देखते हैं
उन्हें हो पर्वा ही क्यों प्यार करने वालों की
वो हौसले तो फ़क़त जंग-जू के देखते हैं
इक एक कर के घरों को जलाए जाता है
करिश्मे रोज़ किसी सुल्ह-ख़ू के देखते हैं
ज़रा सी धूप बदन को गिराँ गुज़रती है
ये लोग ख़्वाब मगर रंग-ओ-बू के देखते हैं
मैं जानता हूँ अज़िय्यत-पसंद लोगों को
जो मुस्कुरा के मनाज़िर लहू के देखते हैं
दहकती आग को होंठों से छू के देखते हैं
उधर उगाती है फ़स्लें इधर डुबोती है
करिश्मे हम भी तिरी आबजू के देखते हैं
उन्हें हो पर्वा ही क्यों प्यार करने वालों की
वो हौसले तो फ़क़त जंग-जू के देखते हैं
इक एक कर के घरों को जलाए जाता है
करिश्मे रोज़ किसी सुल्ह-ख़ू के देखते हैं
ज़रा सी धूप बदन को गिराँ गुज़रती है
ये लोग ख़्वाब मगर रंग-ओ-बू के देखते हैं
मैं जानता हूँ अज़िय्यत-पसंद लोगों को
जो मुस्कुरा के मनाज़िर लहू के देखते हैं
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