'क़मर' हाँ में बदली नहीं रफ़्ता-रफ़्ता
By qamar-malalFebruary 28, 2024
'क़मर' हाँ में बदली नहीं रफ़्ता-रफ़्ता
कि हम से खुला वो हसीं रफ़्ता-रफ़्ता
गली में टहलने को निकला था कल वो
मकानों से निकले मकीं रफ़्ता-रफ़्ता
मज़ा कुछ तो आए बिछड़ने का हम को
बढ़ा चाह ऐ हमनशीं रफ़्ता-रफ़्ता
सो इक एक मुनकिर ने रख दी बिल-आख़िर
तिरे आशियाँ पर जबीं रफ़्ता-रफ़्ता
किसी का न एहसाँ उठाया कि हम तो
हुए ख़ाक अपने तईं रफ़्ता-रफ़्ता
हुआ तीर पैवस्त-ए-जाँ धीरे-धीरे
हुई आँख वो सुर्मगीं रफ़्ता-रफ़्ता
चले बर्क़-रफ़्तारी से सू-ए-अफ़्लाक
किया आसमाँ को ज़मीं रफ़्ता-रफ़्ता
कि हम से खुला वो हसीं रफ़्ता-रफ़्ता
गली में टहलने को निकला था कल वो
मकानों से निकले मकीं रफ़्ता-रफ़्ता
मज़ा कुछ तो आए बिछड़ने का हम को
बढ़ा चाह ऐ हमनशीं रफ़्ता-रफ़्ता
सो इक एक मुनकिर ने रख दी बिल-आख़िर
तिरे आशियाँ पर जबीं रफ़्ता-रफ़्ता
किसी का न एहसाँ उठाया कि हम तो
हुए ख़ाक अपने तईं रफ़्ता-रफ़्ता
हुआ तीर पैवस्त-ए-जाँ धीरे-धीरे
हुई आँख वो सुर्मगीं रफ़्ता-रफ़्ता
चले बर्क़-रफ़्तारी से सू-ए-अफ़्लाक
किया आसमाँ को ज़मीं रफ़्ता-रफ़्ता
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