जो सोज़-ए-मोहब्बत में जलते रहे

By rizwan-aliFebruary 28, 2024
जो सोज़-ए-मोहब्बत में जलते रहे
अँधेरों की क़िस्मत बदलते रहे
दिल-ओ-जान करता था जिन पर निसार
मेरे नाम से क्यों वो जलते रहे


उन्ही को मिले मंज़िलों के निशाँ
जो हर गाम गिर कर सँभलते रहे
ख़ुदा ने दिए थे जिन्हें हौसले
हवाओं के रुख़ वो बदलते रहे


हुए मंज़िलों से शनासा वो ही
मिरी रहबरी में जो चलते रहे
रहा मुझ पे ये भी ख़ुदा का करम
मिरे सर से तूफ़ान टलते रहे


मैं मंज़िल पे अपनी पहुँच भी गया
जो हासिद थे हाथ अपने मलते रहे
बुज़ुर्गों के नक़्श-ए-क़दम जिस पे थे
उसी रह पे 'रिज़वान' चलते रहे


58280 viewsghazalHindi