हूँ मुश्त-ए-ख़ाक मगर कूज़ा-गर का मैं भी हूँ

By irfan-siddiqiFebruary 6, 2024
हूँ मुश्त-ए-ख़ाक मगर कूज़ा-गर का मैं भी हूँ
सो मुंतज़िर उसी लम्स-ए-हुनर का मैं भी हूँ
कभी हवा-ए-सर-ए-शाख़-सार इधर भी देख
कि बर्ग-ए-ज़र्द हूँ लेकिन शजर का मैं भी हूँ


ये तेज़ रौशनियों का दयार है वर्ना
चराग़ तो किसी तारीक घर का मैं भी हूँ
तुम्हारे ज़ख़्मों से मेरा भी एक रिश्ता है
लहू नहीं हूँ मगर चश्म-ए-तर का मैं भी हूँ


मुझे खिंची हुई तलवार सौंपने वाले
मैं क्या करूँ कि तरफ़-दार सर का मैं भी हूँ
अब आ गई है सहर अपना घर सँभालने को
चलूँ कि जागा हुआ रात-भर का मैं भी हूँ


24964 viewsghazalHindi