'अजब अपनी हालत ये हम देखते हैं
By rana-khalid-mahmood-qaiserFebruary 28, 2024
'अजब अपनी हालत ये हम देखते हैं
कि आँखों को हर लम्हा नम देखते हैं
लगाएँ तो क्या ऐसी दुनिया से दिल हम
मुसलसल जहाँ ग़म पे ग़म देखते हैं
दरख़्तों समुंदर हवा और फ़लक पर
'अजब उस का जाह-ओ-हशम देखते हैं
जो रहता है शह-रग में अपनी उसी को
न तुम देखते हो न हम देखते हैं
हम अपने चमन-ज़ार-ए-हस्ती पे इक दिन
सितम-ज़ार-ए-मुल्क-ए-‘अदम देखते हैं
वो ना-मेहरबाँ मेहरबाँ हो गया है
क़दम दो क़दम चल के हम देखते हैं
नहीं देखते हैं तिरे ख़्वाब जब हम
तो फिर राह-ए-मुल्क-ए-‘अदम देखते हैं
उलझते हैं जब भी मसाइल में 'क़ैसर'
तो उस ज़ुल्फ़ के पेच-ओ-ख़म देखते हैं
कि आँखों को हर लम्हा नम देखते हैं
लगाएँ तो क्या ऐसी दुनिया से दिल हम
मुसलसल जहाँ ग़म पे ग़म देखते हैं
दरख़्तों समुंदर हवा और फ़लक पर
'अजब उस का जाह-ओ-हशम देखते हैं
जो रहता है शह-रग में अपनी उसी को
न तुम देखते हो न हम देखते हैं
हम अपने चमन-ज़ार-ए-हस्ती पे इक दिन
सितम-ज़ार-ए-मुल्क-ए-‘अदम देखते हैं
वो ना-मेहरबाँ मेहरबाँ हो गया है
क़दम दो क़दम चल के हम देखते हैं
नहीं देखते हैं तिरे ख़्वाब जब हम
तो फिर राह-ए-मुल्क-ए-‘अदम देखते हैं
उलझते हैं जब भी मसाइल में 'क़ैसर'
तो उस ज़ुल्फ़ के पेच-ओ-ख़म देखते हैं
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